बहुगुण जाति-वंश परिचय एंव हिमालय क्षेत्र में आगमन
हिमालय क्षेत्र तपस्या के अनुकूल शांत प्रदेश होने के कारण भारतीय ऋषि-मुनियों से सेवित प्रदेश रहा है। भारतीय साहित्य में इस प्रदेश को देवभूमि व तपोभूमि नाम से आदर पूर्वक स्मरण किया जाता रहा है। संस्कृत कवि कालिदास ने इसे देवात्मा कहा हैः
अस्त्युत्तरस्यां दिशि देवात्मा हिमालयो नाम नगाधिराज।
पूर्वापरी तोयनिधवगाह्भ स्थितः पृथिव्या इव मानदण्ड।।
(कुमारसंभव 1/1)
केदारखण्ड में इस हिमालय के पाँचों खण्डों का पृथक-पृथक नामोल्लेख किया गया है
खण्डाः पंञ्च हिमालयस्य कथितः नेपालकूर्माचलो।
केदारोSथ जलधरो च रूचिरः काश्मीर संज्ञोत्तम।।
अर्थात हिमालय के नेपाल, कूर्माचल (कुमायूं), केदारखण्ड (गढ़वाल)। जलघर (जालन्धर या पंजाब-हिमांचल) और काश्मीर ये पाँच खण्ड हैं। इनमें हरिद्वार से उत्तर व तमसा (टॉस) नदी व काली नदी के बीच तातार (तिब्बत) भूमि से दक्षिण भूमि का नाम ईसा की पंद्रहवीं सदी तक केदार भूमि या केदार खण्ड था। गढ़वाल के प्रथम उपलब्ध साहित्य “मनोदय कांव्य” में इसको “गढ़ देश” और “गढ़ राज्य” कहा गया है-
गढ़ देश नरेश वेश्मनि प्रगटीभूत मतः सदोचितम्।
सुखदं पठनाम दायवन्ननु मानोदयकाव्य पुस्तकम्।
(मानोदय काव्य के अन्त की पुष्पिका श्लोक 1 यह श्लोग मेघाकर शास्त्री द्वारा लिखा गया है जिन्होने 1739 से 1744 के बीच मानोदय काव्य का पुनरूद्धार किया।)
इससे सपष्ट है कि गढ़वाल के राजा मानशाह (शासनकाल 1595 ई. से 1608 ई.) के राजकवि भरत ज्यतिषराय के भतीजे मेघाकर शास्त्री के समय (1715 से 1792 ई.) तक इस क्षेत्र का नाम केदार खण्ड के स्थान पर गढ़वाल प्रसिद्ध हो चुका था। इसी तथ्य को ध्यान में रखते हुये “उत्तराखण्ड का इतिहास” ग्रंथ के लेखक डॉ. शिवप्रसाद डबराल “चारण” लिखते है- सोलहवीं सदी के पूर्वार्द्ध में जब अजोपाल ने गढ़ों को जीत कर एकच्छत्र राज्य की स्थापना की तो उसके शासित प्रदेश को “गढ़वार” या “गढ़ राज्य” कहा जाने लगा। (गढ़वाल का नवीन इतिहास भाग 1 पृष्ट 15)
हिमालय के इस मध्यवर्ती क्षेत्र के “गढ़वाल” नाम पड़ने के पूर्व ही ईसा को सातवीं शताब्दि में शंकराचार्य जी ने इस प्रदेश की यात्रा कर बद्रीनाथ धाम की स्थापना कर चुके थे। ग्यारहवीं शती के प्रारंभ में मालवा नरेश भोज बदरीनाथ के मन्दिर का जिर्णोद्धार कर चुके थे। अतः देश की आस्तिक जनता का इस प्रदेश की तीर्थ यात्रा का मोह पढ़ गया था। इसीलिए इसी समय काशी से शर्मा उपनाम वाले भारद्वाज गोत्रिय सहोदर ब्राह्मण अच्युतानन्द व ब्रह्मानन्द काशी अपनी शिक्षा समाप्त कर बदरीनाथ की यात्रा पर केदारखण्ड पधारे। “बहुगुण-वंशावलि” में इस प्रसंग से लिखा है-
तत्र जातौ मुनिकुले ह्मच्युतानंद एव हि।
ततश्च प्रथितः ब्रह्मानंद संज्ञो द्विजोत्तमः।।
तौ परिज्ञात तत्तवाथौ बदरीशेक्षणाय वै।
आगताविह ब्रह्माख्यो मृतोSध्वनि रमेशितु।।
उपयुक्त वंशावलि लेखक को टकोली के पं0 गौरीदत्त शर्मा के पौत्र पं0 श्रीकृष्ण दत्त बहुगुणा (श्रीनगर गढ़वाल) से प्राप्त हुई है। इसमें अच्युतानन्द व ब्रह्मानन्द के इस यात्रा पर आने का समय नहीं है। बहुगुण वंशावलि की खोज का कार्य पं0 गिरिधरारी लाल बहुगुणा (पौड़ी) ने किया था। उनके पुत्र प्रो0 शंभु प्रसाद बहुगुणा आज प्राप्त होने वाली विभिन्न “बहुगुण-वंशावलि” के सम्बन्ध में रमेश दत्त बहुगुणा (बम्बई) के लिए लिखे अपने पत्र में लिखते हैं – पौड़ी गढ़वाल जिले की चलणस्यूं, इडवालस्यूं, नांदलस्यूं पट्टियों में बहुगुण वंशवेलियां रची गई, अठ्ठारहवीं ईसवी शती में समसामयिक सत्य-तथ्यनिष्ठ वंशावली पोखरी (पट्टी चलणस्यूं परगना देवलगढ़) जन्में श्री अचलानंद बहुगुण ने रची। इसकी प्रतिलिपियां की गई और अपने समय तक लाने का उधोग किया गया। ये वेलियाँ संस्कृत श्लोकों में रची गयीं। श्री अचलानन्द जी को जो सूचनायें प्राप्त हुई, जो परम्परागत बातें सुनने को मिलि; पूर्वजों के बारे में वे उन्होंने लिखी। ज्ञात-ख्यात स्मृति शेष श्री अच्युतानन्द से ये वंशावेलियां आरम्भ की जाती हैं (प्रो0 शंभु प्रसाद बहुगुणा का बम्बई श्री रमेश दत्त के नाम लिखा 17 मार्च, 1990 का पत्र)।
जोशियों के छापामारों द्वारा 1785 ईं. को पोखरी (पट्टी चलणस्यूं) स्थित बहुगुणाओं के दुर्लभ साहित्य व पाण्डुलिपियों से पूर्ण पुस्कालय को जला देने पर तथा अक्तुबर 1803 ई. को गोरखलियों के आक्रमण में गढ़वाल राज्य के अभिलेखागार के नष्ट हो जाने पर पुराने इतिहास को जानने का कोई प्रामाणिक आधार शेष नहीं बचा है। केवल परम्परागत ज्ञात-ख्यात व प्रो0 शंभु प्रसाद बहुगुणा के अनुसार बहुगुणाओं के आदि पुरूष के रामनगर (बानारस) स आने का संदर्भ प्राप्त होता है। स्मृति शेष वर्तमान वंशावलियों से प्राचीन इतिहास पर जो कुछ प्रकाश पड़ता है उसी से संतोष करना पड़ता है।
गढ़वाल राज्य के दीवान पं. हरिकृष्ण रतूड़ी नें अपने ग्रन्थ “गढ़वाल का इतिहास” में गंगाड़ी ब्राह्मणों के साथ प्रथम स्थान पर बहुगुणाओं के विषय में निम्नलिखित सुचना उपलब्ध की है-
- वर्तमान जाति –बुधणा (बहुगुणा), कहाँ से आये –गौड़ बंगाल, पूर्व जाति संज्ञा आधगौड़, आने का संवत् 980 विवरण- मूल पूरूष कृष्णानन्द अच्युतानन्द बधाणी गाँव में बसे थे (गढ़वाल का इतिहास पृष्ट 74)।
इसी प्रकार महीधर बड़थ्वालजी ने “गढ़वाल में कौन कहां” तथा डॉ शिव प्रसाद डबरालजी “चारण” नें “उत्तराखण्ड के इतिहास” में दीवान रतूड़ी जी की उपर्युक्त जानकारी को ही दोहराया है। किन्तु गढ़वाल के जातीय इतिहास से अपरिचित राहुल सांकृत्यानजी ने “बुधणा” और “बहुगुणा” को दो अलग जाति मानकर इनका इतिहास निम्नवत् दिया है-
बहुगुणा गंगाड़ी ब्राह्मण बनारस से आये व बुधाणी आकर बसे। बुधाणा गंगाड़ी आदिगौड़ बुधाणी में आकर बसे कृष्णानन्द गौड़ बंगाल से आये (हिमालय परिचय (1) गढ़वाल पृष्ट 269 से)।
इनमें से बंगाल से आने की संभावना का हम नीचे पेज के नीचे दिये गये लिंक “बहुगुण जाति का प्रारम्भ“ मे खण्डन कर चुके हैं। गौड़ देश से इस जाति के पूर्वज का आना इतिहास, वंशावली तथा कुल परम्परागत अनुश्रुति से सिद्ध है, किंतु गढ़वाल में आने के समय में वंशावलि लेखक एकमत नहीं है। जँहा रतूड़ीजी अचुयुत्यानन्द का संवत् 980 में गढ़वाल आना बताते हैं बहां इस वंश के हेमवन्तीनन्दन बहुगुणा चौदवीं शताब्दि तथा ऋषिकेश के आचार्य चण्डी प्रसाद बहुगुण ईसा की तेरहवीं शताब्दि मानते हैं। जैसी कि उपर बतलाया गया है कि प्रचीन पुस्तकालय के नष्ट हो जाने पर आज स्मृति व ख्यातिशेष अच्युतानन्दजी से इस वंश के वंशज अपनी परम्परा को जोड़ते हैं ऐर उस परम्परा से आज इस वंश की इक्कीसवीं बाईसवीं पीढ़ी चल रही है। यदि एक पीढ़ी की अवधि 5-30 वर्ष मानी जाये तो इस वंश का गढ़वाल का इतिहास साढ़े पांच व साढ़े छः सौ वर्षों से अधिक पुराना नहीं है। अर्थात ईसा की तेरहवीं शती के मध्य में अच्युत्यानन्दजी अथवा अन्य नाम का इस वंश का मूल पूरूष गढ़वाल आया होगा। प्रो0 शंभु प्रसाद बहुगुणा इस वंश के प्रथम ऐतिहासिक व्यक्ति का नाम वेदनिधि पडित मानते हैं (गोपेश्वर के शिवमन्दिर के त्रिशुल में 1191 ई. का संस्कृत प्रशास्ति लेख है जिसमें वेदनिधि पंडित का नाम साक्ष्य के रूप में अंकित है। इतिहास व वंशावलि के अनुसार वे बहुगुण वंश के आदि पुरूष हैं)। इनका ऐतिहासिक साक्ष्य 1192 ई. का है। किंतु वे आगे स्पष्ट करते हैं- मध्यवर्ती हिमालय के श्री क्षेत्र के बहुगुणाओं का आरम्भिक इतिहास सामाग्री नष्ट हो जाने से विस्मृति के गर्भ में चला गया है। वेदनिधि पंडित (1192 ई. से ) अच्युतानन्द (1339 ई.) तक की त्रमब्ध जानकारी दे सकना अभी सम्भव नहीं है (रविवासरीय “स्वतन्त्र भारत दैनिक” 6 जून, 1976 ई. पृष्ट 5)।
सप्तऋषि आश्रम, हरिद्वार के संचालक श्री मनहोर लाल बहुगुणा का कहना है कि उनके पास उनके पूर्वजों की लिखी कोई इतिहास-पुस्तक है जिसमें बहुगुणाओं का किसी पाल राजा के दरबार में राजगुरू व मंत्री होने का उल्लेख है किंतु बीच में चन्द्रवंशी राजाओं के तथा अन्तिम पाल राजाओं के शासनकाल में भी ड़गवाल व डोभाल आदि ब्राह्मण जातियां इस स्थान पर नियुक्त हुई है। उन्होंने यह संदर्भित ग्रंथ इन पंक्तियों के लेखक को नहीं दिखलाया किंतु यदि उनकाकथन सत्य है तो बहुगुणाओं के आदि पुरूष का गढ़वाल (मध्य हिमालय) में वित्रम की दसवीं ग्याहरवीं शताब्दि में आना निश्चित होता है।
सामान्य रूप में पहाड़ के मनुष्य ही नहीं वरन् यहां का जल, पत्थर व मिट्टी भी उपर से नीचे मैदान की ओर जाता है किंतु विपरीत परिस्थति (1. सुरक्षा व अजीविका की खोज, तीर्थयात्रा, एकान्त प्रकृति सेवन व रोमांचक कार्यों में रूचि) में मैदान के व्यक्ति पहाड़ पर जाते हुए देखे गये हैं। अच्युतानन्द जी व उनके भाई ब्रह्मानन्द अथवा कृष्णानन्द) भी बद्रीनाथजी की यात्रा के लिए नजीबाबाद से पौढ़ी होते हुये चांदपुर गढ़ी में गढ़वाल नरेश (बोलवां बद्रीनाथ) के दर्शन के लिए गये कहा जाता है कि राजपरिवार का कोई सदस्य जीवन मृत्यू के बीच संघर्ष कर रा था जिसके कारण राजा महल से बाहर नहीं आया और यात्रियों को उनके दर्शन नहीं हुये। कारण जानने पर इनमें से एक भाई जो कि वैधक कला में निपुण थे, ने तुरन्त नाड़ी परीक्षा कर उसे औषधि दी जिससे रोगी को तुरन्त लाभ हुआ। राजा और राजमाता ने प्रसन्नता से इन वैध दी का स्वागत किया तथा कुछ दिन ठहर कर उस रोगी का उपचार करने का आग्रह किया। उन्हे भय था कि कहीं रोगी पुनः अस्वस्थ न हो जाय। इस पर दूसरे भाई ने ज्योतिष के बल पर रोगी की दीर्घायु की भविष्यवाणी कर राजमाता को आश्वस्त किया। इस समय तक राजा (सम्भवतः कनक पाल) उनकी विद्ता व गुण सम्पन्नता पर रीझ चुके थे। उस समय तो उन्होनें इस गुणज्ञ भाईयों को यात्रा के लिए बदरीनाथ जाने की अनुमति दे दी किंतु लौटते हुये पुनः दर्शन का वचन ले लिया। इधर हिम प्रदेश की अति शीत से ब्रह्मानन्द जी की मार्ग में ही मृत्यु हो गई और दूसरे भाई अच्युतानन्द जी को उक्त राजा ने अपने दरबार में सम्मानित मंत्री पद प्रदान किया और राजमाता ने सभापंडित उनियाल जी को कह कर उनकी पुत्री से इनका विवाह संपन्न कराकर तथा भूमि दान कर इन्हैं वहीं का वासी बना दिया। इस लोकश्रुति का श्री अबोध बंधु बहुगुणा ने लेखक को लिए अपने पत्र में इस प्रकार उल्लेक किया है-
लोक मानस में सुदृढ़ रूप से व्याप्त व विराजमान उस स्थापना को जिसके अनुसार बहुगुण वंश का शर्मा नामकारी आदि पुरूष अपने सहोदर के साथ गौड़ देश से तीर्थाटन हेतु गढ़वाल आया था और शीत मौसम और मार्ग की कठिनाईयों के कारण हुई उस अपने सहोदर की मृत्यु से क्षुब्ध, उदासीन और विरक्त होकर वह सांसारिक मोह से छुटकारा पाने हेतु डोलाचल पर्वत पर तपस्या करने लगा। इसी दौरान उन्हैं तत्कालीन कीसी राज्य के सम्बन्ध में कुछ भविष्यवाणियाँ की जो सत्य निकली। राजा उसकी ओर आकृष्ट हुआ और उसने ज्योतिष, वैधक आदि कई विषयों के ज्ञाता और विद्वान होने के नाते उस बहुगुण सम्पन्न पुरूष को अपनी राजभाषा संस्कृत में “बहुगुण” की उपाधि से विभुषित एंव सम्मानित करके उसे लोकाभमुख किया। बाद में राजपुरूषों के संसर्ग में रहने के कारण वे राजा अजय पाल की राजधानी देवलगढ़ के पास “बधाणी” में आकर बस गये जँहा सम्भवतः पहले से ही और जातियों के लोग निवास करते थे। “बुघाणी” बुध्न (राज्य या स्थान का सूचक शब्द) से बना शब्ध जान पड़ता है, आगन्तुक पुरूष के नाम प्रभाव से नहीं (श्री अबोध बन्धु बहुगुण का लेखक के नाम 24 अक्तुबर, 1990 का पत्र)।
कुछ इससे मिलती जुलती कथा का उल्लेख “उत्तराखण्ड का इतिहास” ग्रंथ के लेखक डॉ. शिव प्रसाद डबराल भी बहुगुण वंशावली के संदर्भ में करते हैं- बहुगुणा वंशावलि नामक एक छोटा सा संस्कृत ग्रंथ मिला है, जिसमें मेधाकार पूर्वजों की बदरी देश की तीर्थयात्रा के लिए गौड़ से आने और डोलाचल पर बस जाने का उल्लेख है। इसमें दी गई वंशावली में अन्तिम नाम मेघाकर के पुत्र रामदत्त का है (गढ़वाल का नवीन इतिहास भाग-2 पृष्ट 215 से)।
अच्युतानंद नामा यो गौरी क्षेत्रे क्षणाय सः।
प्राप्तो नूनं गौरी तुष्टे रागतो देवलगढ़।। (15)
तत्र राजा देविभक्तो मंत्र तंत्राचंने रति।
प्रार्थयामास तं विप्र पौरोहित्याग सत्तमम् ।।(16)
ज्ञात्वा दिव्यमिनं देशं गंगा क्षेत्र समीपतः।
निर्ममें दिव्यघोषां च गुणश्रेष्ठां गुणाधिकाम्।। (17)
यतो बै गुर्णर्युक्ता बौधाणास्तेन कीर्तिताः।
गूढ़ संज्ञा तु ते प्राप्ताः काले कलियुगे बुधैः।। (18)
बहुगुण जाति का प्रारम्भ
बहुगुणा जाति के वंशज आज अपने गौत्र अथवा जाति के द्वारा पहिचाने जाते हैं। क्षेत्रीय प्रभाव, कार्य व प्रभुत्व को ध्यान में रख कर यह जाति अनेक उपजातियों में विभक्त हो चुकी है। कुछ उपजातियाँ सम्पूर्ण भारत में एक ही उपनाम से जानी जाती हैं। किंतु कुछ उपजातियां स्थान परिवर्तन के साथ नाम परिवर्तन भी कर चुकी हैं। मध्य हिमालय गढ़वाल को वर्चस्व प्राप्त करने वाले ब्राह्मणो की “बहुगुण” उपजाति के समान नाम और इतिहास वाली दूसरी उपजाति भारत के किसी अन्य क्षेत्र में देखने या सुनने मे नहीं आयी है। भारद्वाज गोत्र वाले इस उपजाति के वंशजों के पास जो उनकी वंशावलि प्राप्त होती है वह सत्रहवीं शताब्दि से अधिक प्राचीन नहीं है। इसमें इस जाति के मूल पूरूष का गौड़ प्रदेश से आकर गढ़वाल में बसने का उल्लेख है। गढ़वाल राज्य के दीवान श्री हरिकृष्ण रतूड़ी नें अपनी ऐतिहासिक पुस्तक में इस जाति के मूल पुरूष के गौड़ बंगाल से 980 विक्रम संवत् में आकर आकर गढ़वाल में बसने का उल्लेक किया है। बहुगुणा लोगों का गढ़वल के ठन्डे प्रदेश के व्यक्तियों की भांति श्याम वर्ण उँचा शरीर, लम्वी नाक, उन्नत भाल और चमकीली बड़ी आंखें उनको पर्वत प्रदेश के की जाति सिद्ध नहीं करते। इनके गौड़ प्रदेश से आने का कथा सुनकर कतिपय विद्वानों नें इन्हैं बंगाली ब्राह्मण मान लिया है। (नन्द प्रयाग के अनसुइया प्रसाद जी के पुत्र द्वारिका प्रसाद का कहना है कि वे बंगाल के वर्द्धमान जिले के अन्तर्गत स्थित “बहुगुण ग्राम” में गये हैं और यही ग्राम बहुगुण जाति का मुल निवास है। किन्तु लेखक को उस गाँव या गढ़वाल के अतिरिक्त किसी अन्य क्षेत्र के निवासियों को “बहुगुण” कहलाते नहीं पया या सुना) उत्तर प्रदेश के भूतपूर्व मुख्यमंत्री श्री हेमवती नंदन बुहुगुणा ने तो सपष्ट रूप से “बहुगुण” उपजाति को बंगाल की “बंधोपाध्याय” का परिवर्तित व विकसित रूप घोषित कर दिया। उन्होंने इसके लिए नाम साम्य, रूप साम्य, इष्ट साम्य को इसका कारण बतलाया है। परन्तु प्रो0 शंभू प्रसाद बहुगुणा ने इन अटकलों को निराधार बतलाकर इसका विरोध किया है। वे स्वयं स्वर्गीय हेमवती नंदन बहुगुणा से उनके मुख्यमंत्री कार्यालय में मिले तथा अपने पूर्वजों को अनुचित ढंग से बंगालियों के साथ जोड़ने का विरोध किया था। प्रस्तुत पंक्तियों का लेखक भी बहुगुणाओं के पूर्वजों को बंगाल का बनर्जी या बंधोपाध्याय नहीं मानता क्योंकि –
- गौड़ एक प्रदेश नहीं वरन् एक राज्य था, जिसकी सीमा सुविस्तृत थी। अतः गौड़ प्रदेश का अर्थ केवल बंगाल मानना अज्ञान है।
- बंगाल समुद्र तट पर बसा हुआ प्रदेश है। यदि बहुगुणा लोग बंगाल से आते तो उनके साहित्य, उनकी अनुश्रुति व आकांक्षाओं में समुद्र का और पानी के जहाज का उल्लेख अवश्य होता। जबकि इस जाति के अब तक प्राप्त साहित्य व कथाओं में नदियों और पर्वतों का वर्णन तो मिलता है किंतु समुद्र का नहीं।
- बंगाल की काली पूजा प्रसिद्ध है। यदि इस जाति के पुरूष बंगाल से आये होते, तो काली देवी उन की इष्ट होती जबकि इस जाति में गौरजा देवी की पूजा का प्रचलन है, जो कि सपष्टतः गौरवर्ण से प्रसिद्ध है। साथ ही साथ यह भी जान लेना चाहिये कि बहुगुणाऔं के प्राचिन इतिहास से वे पंचदेवपासक स्मार्त सिद्ध होते हैं न कि बंगालियों का भांति शाक्त
- काली देवी का स्वरूप भयंकर व जीभ बाहर निकाले हुये है जबकि इस जाति के द्वारा पूजित देवी सौम्य स्वरूपा व वरदान की मुद्रा में है।
- बहुगुण लोग विन्ध्य के उत्तर के ब्राह्मण होने के कारण आधगौड़ अवश्य हैं किन्तु उसके अन्तर्गत सारस्वत (सरस्वती नदी-पश्चिम में कुरुक्षेत्र से प्रयाग-वाराणसी तक बहने वाली- के तट पर सरस्वती की साधना करने वाले) ब्राह्मण हैं न कि गौड़।
- इस वंश की परिवारिक अनुश्रुति के अनुसार इनके आदि पुरूष को गृहस्थ परम्परा में बाँधने को समुत्सुक ब्राह्मण गढ़वाल राजा के उनियाल ओझा गुरू थे। ये ओझा गुरू मैथिल ब्राह्मण है जो कि बनारस बिहार के निकट क्षेत्र में पाये जाते हैं न कि बंगाल में।
- वंशावलि एंव अनुश्रुति से ज्ञात होता है कि बहुगुणाओं के मूल पूरूष वाराणसी से शिक्षा प्राप्त कर स्नातक के रूप में घर से निकले थे न कि बंगाल से आये थे।
- बंदोपाध्याय जिनको कि बहुगुणाओं का आदि रूप कहा जा रहा है शांडिल्य गोत्रिय है ना कि भारद्वाज गोत्रिय।
- यदि द्वारिका प्रसाद के अनुसार वर्धमान जिले का “बहुगुण” ग्राम इस जाति का मूल प्रदेश है, तो उस गाँव के अन्य निवासी भी बहुगुण क्यों नहीं कहलाये।
बहुगुण नामकरण
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बहुगुण वंश की गौरव कथा
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मध्यवर्ती हिमालय के बहुगुणा
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